हम लोग अभी ट्रेन में हैं. टिटिलागढ़ से कुछ आगे पहुंचे हैं. जगन्नाथ पुरी जा रहे हैं. पुरी का यह मेरा शायद सातवां प्रवास है.
पुरी मुझे अपना सा लगता है. वहां जाकर लगता है हम अपने लोगों के बीच आ गए.
मुंबई जाकर लगता है हम विदेश में आ गए.
पहली बार पुरी गये थे तो खाने की बड़ी दिक्कत हुई थी. हम अरवा चावल खाने के आदी थे और वहां उसना चावल मिलता था. भोजनालयों के बाहर तक उसना चावल की गंध आती थी. एक होटल वाले ने कहा कि उसके यहां अरवा चावल मिलता है. लेकिन चावल आया तो वह उसना था. हमने खाए बगैर क्षमा मांगी. उसने भी थालियां वापस ले लीं और पैसे नहीं लिए.
एक बार भांजी के मुंडन के लिए पुरी गये. वहां आटो वाले से कहा कि जहां अच्छा खाना मिलता हो वहां पहुंचा दो. आटो वाले ने दूसरे आटो वाले से सलाह ली. उसने कहा इन्हें चांगू ले जाओ.
वह जहां ले गया वह एक चाइनीज रेस्त्रां था. चांग हो या ऐसा कुछ नाम था. वह नाम तो याद नहीं रहा पर चांगू हमेशा के लिए याद रह गया. वहां खाने की और तो कोई चीज पसंद नहीं आई पर पुलाव हमने दोबारा मंगवाकर खाया. हो सकता है वह चाइनीज फ्राइड राइस रहा हो. आजकल तो चाइनीज खाना जगह जगह मिलता है. बच्चे सब चीजों के नाम जानते हैं. उस जमाने में ऐसा नहीं था. हमें बस इतना मालूम था कि चाइनीज खाना भी कुछ होता है.
बताते हैं कि आजकल पुरी में हर तरह का खाना मिलता है. यह कल पता चल जाएगा. नहीं तो हम किसी आटो वाले से कहेंगे कि वह हमें चांगू ले चले.