- प्रेस क्लब रायपुर में लोकप्रिय उद्घोषक कमल शर्मा के उद्बोधन के अंश-
रायपुर। विविध भारती के लोकप्रिय उद्घोषक रहे कमल शर्मा हाल ही में रायपुर प्रेस क्लब में आमंत्रित थे। उन्हें सुनने भीषण गर्मी में उनके चाहने वाले जुटे। उन्होंने रेडियो पर अपने काम के कई संस्मरण सुनाए। बाद में श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए। महानदी न्यूज डॉट कॉम प्रस्तुत कर रहा है उनके उद्बोधन के अंश-
मैंने शेरनी का इंटरव्यू नहीं लिया था
आप सबके प्रति मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। इतनी गर्मी में आप मुझे सुनने के लिए यहां आए।
अभी एक साथी ने कहा कि मैंने एक शेरनी का इंटरव्यू लिया था। मुझे लगता है कि कुछ चीजें गलतफहमी में ऐसी फैल जाती हैं कि लोग उन पर यकीन करने लग जाते हैं। दरअसल मैंने पर्यावरण और पशु पक्षियों के उसके साथ रिश्ते और उस पर मंडराते खतरे को व्यक्त करने के लिए स्थिति का नाट्य रूपांतरण किया था। एक शेरनी के मन में जो द्वंद्व चल रहा होता है उसे मैंने मानव स्वर दिया था। कि मैंने क्या बिगाड़ा है, आपने मेरा जंगल छीन लिया, मेरा घर छीन लिया। रेडियो पर इसे आप कहना चाहेंगे तो कैसे कहेंगे?
रेडियो एक ब्लाइंड किसम का माध्यम है
रेडियो एक ब्लाइंड किसम का माध्यम है। आपको कुछ दिखाई नहीं देता। आपको रंग भी बताना हो तो आप कहते हैं- अच्छा तो तुमने नीली शर्ट पहनी है? ताकि सुनने वाले को लगे कि अच्छा, इसने नीली शर्ट पहनी है। बारिश हो रही है यह बताने के लिए हम कहेंगे- तुम बहुत भीगे हुए हो। पीछे साउंड का इफेक्ट। म्यूजिक, साउंड का इफेक्ट और आवाज। रेडियो में आप इन तीन चीजों के जरिए सारा खेल करते हैं। क्योंकि कुछ आपको दिखाई नहीं देता। लेकिन हम आपको कैसे अहसास कराएं।
तब भाषा में परफेक्शन जरूरी होता है
अमूमन जब हम बोलते हैं तो बहुत गलतियां करते हैं। फम्बल करते हैं। हकलाते हैं। गलत शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। दोहराव होता है। लेकिन जब हम एक पेशे में आते हैं, भाषा का पेशेवराना इस्तेमाल करते हैं, तो उसमें हमें परफेक्शन चाहिए। इसको साधना बहुत जरूरी है।
कुछ चीजें हम बचपन से सुनते आते हैं और वे हमारे जेहन में बस जाती हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में हर चीज में अनुस्वार लगाने की आदत है जैसे हांथी, हांथ, चांवल।
कुछ शब्द जो होते हैं वे शहर विशेष की पहचान बन जाते हैं। जैसे भोपाल के हमारे एक साथी ऐसी बात वैसी बात को एसी बात, वेसी बात कहते थे। राजस्थान के हमारे एक साथी कहते थे- शाम के छे ब्जे हैं। हर जगह भाषा में एक लोकल टच देखने को मिलता है। पंजाब वाला अगर हिंदी बोलेगा तो उसमें एक अलग फ्लेवर मिलेगा।
लोग कहते थे-हमने विविध भारती से हिंदी सीखी
रेडियो ने, और खासतौर पर विविध भारती जैसे राष्ट्रीय चैनल ने हिंदी के प्रचार प्रसार में , लोगों को जोड़ने में बहुत योगदान दिया है। खासतौर पर हिंदी फिल्मी गीतों ने। जब मैं हैलो फरमाईश प्रोग्राम करता था तो लोग मुझसे बताते थे कि हमने हिंदी फिल्मी गीत सुनकर या विविध भारती सुनकर हिंदी सीखी है।
विविध भारती की शुरुआत 3 अक्टूबर 1957 को हुई थी। इसकी शुरुआत की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि बहुत सा राजस्व सीलोन में चला जाता था। उस समय फिल्मी गाने रेडियो पर बैन थे।
रेडियो पर काम करना इबादत जैसा था
रेडियो पर काम करना मेरे लिए एक इबादत की तरह था। हमने एक कार्यक्रम किया हैलो कारगिल। इसे मैंने डिजाइन किया था। उस कार्यक्रम में देशभर से कॉन्ट्रीब्यूशन आता था। कुछ रिकार्डिंग्स आती थीं। कुछ हम फोन पर रिकार्ड करते थे। जवानों से हमने सैटेलाइट फोन से बात की। मुझे याद है कि कैप्टन बतरा और कैप्टन वालिया से बात करने का भी मुझे मौका मिला था।
फौजियों के बीच जाने का मौका लगा
आकाशवाणी के एसी स्टूडियो में बैठकर देशभक्ति की बात करना बहुत आसान है। हम लोग कोई नहीं होते कि अपने देशभक्त फौजी भाइयों को देशभक्ति की बात सिखाएं। लोग कहते हैं कि उनके लिए देशभक्ति के गीत बजाओ। अरे उनके लिए क्या गीत बजाएं। वो तो देश के लिए अपने आपको सैक्रिफाइस करने वाले हैं। इससे बड़ी देशभक्ति क्या होगी? बड़ी शर्मिंदगी भी होती थी। शर्मिंदगी इसलिए कि हम लोग आराम की स्थिति में हैं और वे लोग भीषण गर्मी में।
विविध भारती की गोल्डन जुबली हुई तो फौजी भाइयों के बीच जाने का मौका मिला। हमने देखा कि भारत पाकिस्तान बार्डर पर भीषण गर्मियों में वे टपरियों में रहते थे जिनमें पंखे नहीं थे। पानी गर्म होता था। रायपुर में गर्मियों में नल से कैसा गर्म पानी आता है। हालत खराब हो जाती है। ऐसे हालात में वहां एक आदमी निशाना लगाए बैठा है, आठ घंटे की ड्यूटी कर रहा है, यह बहुत मुश्किल होता है।
हमारे पास खून से लिखे खत आते थे
उन दिनों हमारे पास खून से लिखे खत आते थे। बदकिस्मती से आज वो खत मेरे पास नहीं हैं।
इसी कार्यक्रम के दौरान एक बार जयपुर से मुझे एक फोन आया। कहा कि आपसे कुछ देर बात करना चाहते हैं। एक एक कर कई लोगों ने बात की। एक ने बताया कि मुझे दो गोलियां लगी हैं। दूसरे ने कहा कि मेरी एक टांग काट दी गई है। तीसरे ने कहा कि मेरा एक हाथ कट गया है। जब मेरी बात हो गई तो मैंने कहा- अब? कहा- आपसे बात हो गई, अब फिर से लड़ने जाएंगे। ये जज्बा है।
इससे बढ़कर सुकून दूसरा नहीं मिला
ऐसे ही एक और कार्यक्रम मैं करता था- जयमाला संदेश। जब कारगिल युद्ध खत्म हो गया तो हैलो कारगिल कार्यक्रम भी खत्म हो गया। हमारे अधिकारी ने कहा कि यह कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय था। अब क्या करें? मैंने कहा कि हमारे पास जवानों की बहुत चिट्ठियां आती हैं। उनके घरवालों की चिट्ठियां आती हैं। क्यों न हम इन चिट्ठियों को लेकर एक कार्यक्रम शुरू करें। तो इस तरह यह कार्यक्रम शुरू हुआ। इसमें हम जवानों की लोकेशन नहीं बताते थे। इसमें किसी बेटी की चिट्ठी आती थी कि पापा आपने खिलौने लाने का वादा किया था। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे आप चाहिए। बहुत से इमोशंस यूनिवर्सल होते हैं। आप चिट्ठियां पढ़ते हुए इनसे कैसे बचेंगे? कई बार गला रूंध जाता था। किसी मां की चिट्ठी आती थी, किसी बहन की, किसी भाभी की। आप कैसे नहीं पसीजेंगे। आपकी आंखों में बादल कैसे नहीं पिघलेंगे?
हैलो कारगिल और जयमाला संदेश करने से मुझे जो सुकून मिला, उससे बढ़कर सुकून जिंदगी में दूसरा नहीं मिला। (जारी)