- लोकतंत्र और माओवाद पर लेखक और विचारक राजीव रंजन प्रसाद ने रखे अपने विचार
रायपुर। सोमवार को वृंदावन हॉल में एक विचार गोष्ठी हुई जिसमें बस्तर में जन्मे लेखक राजीव रंजन प्रसाद ने लोकतंत्र और माओवाद पर अपने विचार रखे। उनके संबोधन का एक अंश-
आज हम दो अलग अलग तंत्र को एक साथ देखने जा रहे हैं। लोकतंत्र और माओवाद। मैं दो तीन छोटी छोटी बातों के साथ अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। बात नब्बे के दशक की है। जगदलपुर से ग्रैजुएशन करने के बाद मैं भोपाल पहुंचा। परिचय या रैगिंग के दौरान एक सीनियर छात्र ने पूछा- कहां से आए हो? मैने कहा बस्तर से। उनमें से अधिकतर को पता नहीं था कि बस्तर है कहां? एक समझदार छात्र ने कहा- अच्छा, बस्तर से आए हो? लेकिन आपने तो कपड़े पहने हुए हैं?
समय बदल गया है। अब जब मैं किसी से कहता हूं कि मैं बस्तर से हूं तो वह मुझे ऐसे देखता है जैसे मैं कोई नक्सलवादी हूं।
एक बार जयपुर राजस्थान की एक छात्रा ने मुझसे कहाकि सर मैं छत्तीसगढ़ की प्रमुख देवियों पर पीएचडी कर रही हूं। मैं दंतेश्वरी मंदिर के बारे में आपसे जानकारी चाहती हूं। मेरे पिताजी का कहना है कि तुम रायपुर नहीं जा सकती। क्योंकि वहां नक्सलियों का प्रभाव है।
अब हम विषय पर आते हैं। माओवाद पर चर्चा करने से पहले हमें देखना होगा कि हम माओ को कितना जानते हैं। हम इतना तो जानते हैं कि माओ बहुत बड़ा क्रांतिकारी था जिसने चीन में व्यवस्था परिवर्तन किया था। पर हमें पता होना चाहिए कि व्यवस्था परिवर्तन के पीछे जो व्यक्ति था उसकी सोच कैसी थी। यह जानने के लिए मैं एक कहानी आपके सामने रख रहा हूं। वह कहानी है एक गौरेया की। माओ को किसी ने बता दिया कि गौरेया किसानों की सबसे बड़ी शत्रु है क्योंकि वह धान से अपना हिस्सा ले लेती है। माओ ने कहा कि सारी गौरेयाओं को मार डालो। वह वर्ग शत्रु है। कितना बड़ा शब्द है यह जिसकी आड़ में हमको-आपको किसी को भी मार डाला जा सकता है। गौरेया को मारने वालों को इनाम दिए जाने लगे। लोगों ने कहीं कोई गौरैया नहीं छोड़ी। उनके अंडे फोड़ डाले, घोंसले जला दिए। बची हुई गौरैयाओं को जाने कैसे पता चल गया कि पोलैंड के दूतावास में उन्हें कोई नहीं मारेगा। हजारों गौरेयाएं दूतावास में प्रवेश कर गईं। पोलैंड के दूतावास के भीतर चीन के लोग कुछ नहीं कर सकते थे। लेकिन माओवादियों को पता होता है कि क्या करना है, कैसे करना है, कितने नीचे तक जाना है। उन्होंने दूतावास को घेर लिया और रात भर डंडे लेकर टीने बजाते रहे। सुबह तक हजारों गौरेयाएं मर चुकी थीं। गौरैया किसानों की शत्रु थी तो उसके मारे जाने से चीन बहुत खुशहाल हो गया होगा? खेती ऐसी हो गई होगी कि सारी दुनिया के लिए खाद्यान्न का भंडार पैदा हो गया होगा? लेकिन हुआ यूं कि चीन में एक साल के भीतर ऐसा भयावह सूखा पड़ा कि लोग भूखों मरने लगे। गौरैया सिर्फ अनाज नहीं खा रही थी। वह फसलों के लिए नुकसानदेह कीड़े मकोड़े भी तो खा रही थी। गौरेयाओं के मारे जाने से कीड़ों ने फसलों पर हमला कर दिया। और एक साल बाद चीन में ढाई करोड़ लोग भुखमरी से मारे गए। सवाल उठता है कि क्या गौरैयाओं को मारने के पीछे जो सोच थी क्या वह यह नहीं जानती थी? क्या इसके पीछे जो व्यक्ति था वह सिर्फ ये जानता था कि सत्ता बंदूक की नली से होकर आती है? वह नहीं जानता था कि सत्ता पाने के बाद क्या करना है?
हमारे देश में भी माओ के समर्थक क्रांतिकारी जबर्दस्त रहे हैं। माओ को पता था कि चीन को अमरीका से खतरा है। इसलिए वह न्यूक्लियर हमलों से बचने के लिए चीन में सुरंगें खुदवा रहा था। उस दौर में बंगाल में नक्सलवाद अपने चरम पर था। उसके एक प्रणेता चारू मजुमदार ने माओ की अंधी नकल करते हुए अपने अनुयायियों से कहा कि सुरंगें बनाओ। किसानों ने कहा कि सुरंगों से हमको क्या हासिल होने वाला है? अमरीका यहां तो परमाणु बम गिराने नहीं आ रहा? लेकिन चूंकि माओ ने चीन में सुरंगें बनवाईं तो यहां भी बननी चाहिए। चारू मजुमदार के पास इसका भी तर्क था। माओवादियों के पास हर बात के लिए तर्क होता है। मैं अपने वामपंथी मित्रों से जब कभी चर्चा करता हूं, तर्क-वितर्क करता हूं तो वे कहते हैं-कभी किसी माओवादी से मिले हो? उसके विचारक से मिले हो? वह आपका मुंह बंद करा देगा। मैं जानता हूं कि वह मेरा मुंह बंद करा देगा। वह अपने तर्कों से मेरा मुंह बंद न करा पाया तो उसके पास और भी रास्ते हैं। थ्येन आन मन में जो हुआ वह मुंह बंद कराने का दूसरा तरीका ही तो था। जब चारू मजुमदार से पूछा गया कि इन सुरंगों का करोगे क्या तो उसने कहा कि इससे जो पत्थर और मिट्टी निकलेगी उसका उपयोग हम बांध बनाने में करेंगे। बांध क्या ऐसे ही बन जाते हैं? क्या बांध के पीछे कोई विचार काम नहीं करते? कोई अध्ययन नहीं होता? कहीं से भी मिट्टी निकाली, कहीं से भी पत्थर निकाले और कहीं पर भी बांध बना दिया, क्या यह संभव है?
इन दिनों साम्यवादी अभिलेखागार खुल गए हैं। हमें पता चल गया है कि साम्यवादी व्यवस्थाएं लाशों पर खड़ी हुई हैं। शंकर शरण ने एक पुस्तक लिखी है- साम्यवाद के सौ अपराध। इस पुस्तक में एक आंकड़ा है जो मैं हू ब हू आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। यह बहुत कंजरवेटिव आंकड़ा है, इसे कम करके लिखा गया है, आप इसमें अपने हिसाब से इजाफा कर सकते हैं। सोवियत संघ 2 करोड़ मौतें, चीन 6.5 करोड़ मौतें, वियननाम 10 लाख मौतें, उत्तर कोरिया 20 लाख मौतें, कंबोडिया 20 लाख मौतें, पूर्वी यूरोप 10 लाख मौतें, लैटिन अमरीका डेढ़ लाख मौतें, अफ्रीका 17 लाख मौतें, अफगानिस्तान 15 लाख मौतें। कुल मिलाकर दस करोड़ लोग साम्यवादी सोच के कारण, साम्यवादी गतिविधियों के कारण, सत्ता परिवर्तन के कारण, कथित क्रांति के कारण मारे गए। आज आप बस्तर में माओवादियों द्वारा की जा रही हत्याओं का अध्ययन कर लें तो आपको पता चल जाएगा कि माओवाद के कारण हो रहे नुकसान को हमारे सामने कितना कम करके प्रस्तुत किया गया है। मौतों की थाती है वामपंथ। साम्यवादी व्यवस्थाएं लाशों पर खड़ी होती हैं, उसकी गतिविधियां लाशों पर खड़ी होती हैं, उसकी सोच के पीछे लाशें गिराने की मंशा होती है। सोच-समझ शून्य लोग इसकी बुनियाद हैं, इसकी ताकत हैं।
बात उन दिनों की है जब मैं इप्टा में हुआ करता था। हम लोग नुक्कड़ों में एक जनगीत गाया करते थे। बहुत भाता था वह गीत। मुझे आज भी वह याद है। तब मुझे उसके मायने नहीं पता थे। गीत था-
जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
जिंदगी है चिल्ला रही है
जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है।
हम नुक्कड़ों में किस सिपाही की बात कर रहे थे? कौन सा सिपाही था, कहां जा रहा था? नक्सलवाद उन दिनों परवान चढ़ रहा था। हम उस सिपाही की बात कर रहे थे जो हमारे विरोध की बंदूक लेकर जंगल के भीतर वहां जा रहा था जहां नक्सलवादी अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था। हमें नहीं पता था कि हम किस तरह से इस्तेमाल हो रहे थे। बौद्धिक ताकतें इस तरह हमारा इस्तेमाल करती रही हैं, कर रही हैं और करती रहेंगी, हमें पता तक नहीं होगा।
लोकतंत्र बनाम माओवाद: थ्येन आनमन की विरासत का बोझ विषय पर बस्तर शांति समिति ने यह कार्यक्रम आयोजित किया। मुख्य अतिथि उप मुख्यमंत्री विजय शर्मा ने इसमें बताया कि चीन के हालात क्या हैं और पूछा कि क्या हम ऐसी व्यवस्था अपने लिए भी चाहते हैं जिसमें बोलने की भी आजादी न हो? उन्होंने कहा कि माओवादियों का साथ दे रहे बस्तर के आदिवासी मन से उनके साथ नहीं हैं। उनके सरेंडर करते ही उन्हें बंदूक थमा कर सुरक्षा की जिम्मेदारी दे दी जाती है क्योंकि हमें उन पर विश्वास है कि वे मन से नक्सलियों के साथ नहीं थे। उन्होंने कहा कि बस्तर में विकास को गांव गांव पहुंचाना है। इस राह में जो भी बाधक हैं, उनसे हम बात करने के लिए तैयार हैं। अगर वे न माने तो सख्ती भी की जाएगी। उन्होंने प्रदेश के सभी नागरिकों से इस विषय में अपनी भूमिका निभाने का अनुरोध किया।
बस्तर के आदिवासी नेता महेश गागड़ा कार्यक्रम में बस्तर की पीड़ा का वर्णन करते हुए रो पड़े। कार्यक्रम में समिति के संयोजक एमडी ठाकुर व राधेश्याम मरई मौजूद थे।