उनके खिलाफ विजय बघेल जो उन्हें एक बार हरा चुके, दो बार हारे हैं
छत्तीसगढ़ की पाटन विधानसभा सीट पर सारे प्रदेश की निगाहें हैं। यहां से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छठवीं बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। वे कका के रूप में पहचान बना चुके हैं और नई पीढ़ी उन्हें इसी नाम से संबोधित करती है। कका अभी जिंदा है, यह संवाद प्रदेश में जाना पहचाना हो चुका है।
भूपेश बघेल ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं जिसकी प्रदेश में सबसे ज्यादा आबादी है। उन्हें छत्तीसगढि़या स्वाभिमान को जगाने वाले नेता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने इस दिशा में काफी काम किया है। छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहारों पर न सिर्फ सरकारी छुट्टियां घोषित की गई हैं बल्कि इन त्योहारों को बड़े पैमाने पर सीएम हाउस में मनाया भी जाता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के खानपान को एक नई पहचान दी है। बोरे बासी खाना अब एक उत्सव हो गया है। छत्तीसगढ़ी खान पान सोशल मीडिया में एक नई ऊंचाई पा चुका है। सरकारी आयोजनों में इसका उपयोग आम हो गया है। खुद मुख्यमंत्री भंवरा चलाकर, गेड़ी चढ़कर, सांप पकड़कर, स्नान के लिए गोता लगाकर समय समय पर यह बताते रहते हैं कि वे ठेठ गांव के आदमी हैं और उनकी जिंदगी एक आम छत्तीसगढि़या की जिंदगी की तरह गुजरी है। उनका परिवार किसानी करता है इसलिए किसानों की बात वे अच्छी तरह समझते हैं।
भूपेश बघेल के समर्थकों के मुताबिक छत्तीसगढि़या स्वाभिमान इतना बड़ा मुद्दा हो चुका है कि विपक्ष के नेता भी बासी खाते और गेड़ी चढते दिखाई देते हैं। भले ही वे यह बताते हों कि हम तो पीढि़यों से ऐसा करते आ रहे हैं।
बघेल ने अपने कार्यकाल में छत्तीसगढ़ी ओलंपिक का आयोजन शुरू किया जिससे छत्तीसगढ़ की छिपी हुई प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। किसने सोचा था कि हमारे बीच दो घंटे तक फुगड़ी करने वाली माताएं और बेटियां मौजूद हैं।
बघेल ने सदियों पुराने राजिम मेले को वापस उसका यह नाम दिलाया है जिसके नाम के आगे भाजपा शासनकाल में कुंभ जोड़ दिया गया था।
भूपेश बघेल एक आक्रामक नेता हैं। पंद्रह साल की भाजपा सरकार के खिलाफ उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में आक्रामक प्रचार किया था।
2008 में विजय ने हराया था भूपेश को
भूपेश बघेल के खिलाफ भाजपा ने विजय बघेल को उतारा है। वे रिश्ते में भूपेश बघेल के भतीजे लगते हैं। 2008 में भूपेश बघेल को 8 हजार वोटों से हरा भी चुके हैं। हालांकि दो बार उनसे हारे भी हैं। 2003 में 7 हजार वोटों से और 2013 में 10 हजार वोटों से। 2018 में भाजपा ने उनकी जगह मोतीलाल साहू को भूपेश बघेल के खिलाफ उतारा। मोतीलाल 27 हजार वोटों से हारे। विजय बघेल के पक्ष में यह बात जाती है कि वे भूपेश बघेल के खिलाफ कम वोटों से हारे हैं और एक बार उन्हें हरा भी चुके हैं। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस की प्रतिमा चंद्राकर को तीन लाख वोटों से हरा चुके हैं। अभी वे सांसद भी हैं और भाजपा की घोषणापत्र समिति के प्रमुख भी।
वैसे राजनीति की शुरुआत विजय बघेल ने 2000 में की थी। तब वे भिलाई नगर परिषद का चुनाव निर्दलीय के रूप में लड़े थे और जीते थे। फिर 2003 में वे एनसीपी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़े और हारे। हार के बाद वे भाजपा में शामिल हो गए जिसने उन्हें 2008 के चुनाव में भूपेश बघेल के खिलाफ टिकट दिया। विजय चुनाव जीत गए। 2013 में पार्टी ने उन्हें फिर टिकट दिया मगर इस बार भूपेश बघेल जीत गए।
अमित जोगी भी मैदान में
पाटन विधानसभा चुनाव में एक दिलचस्प मोड़ आया है अमित जोगी की मौजूदगी से। वे भी यहां से चुनाव मैदान में कूद गए हैं। अमित जोगी पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और विधायक डा. रेणु जोगी के पुत्र हैं। वे जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ से प्रत्याशी हैं। इस पार्टी की स्थापना अजीत जोगी ने की थी। 2018 के चुनाव में पार्टी ने पांच सीटें हासिल की थीं। इस बार रेणु जोगी कोटा और अमित की पत्नी ऋचा अकलतरा से चुनाव लड़ रही हैं। अमित जोगी विदेश में पढ़े हैं और हाईटेक नेता हैं। वे अच्छे लेखक भी हैं। विधानसभा में वे अपनी बात तथ्यपूर्ण ढंग से उठाते रहे हैं। अमित जोगी इस चुनाव में स्थानीय नहीं हैं। उनका कहना है कि पाटन में 23 साल में पहली बार चुनाव होगा। अभी तक चाचा भतीजे का प्यार चल रहा था। हम जनता के अधिकारों के लिए लड़ने वाले हैं। हमने कोई घोषणा नहीं की है। स्टांप पेपर पर लिख कर दिया है कि मेरी सरकार बनेगी तो छत्तीसगढ़ में नेता की नहीं, बेटे की सरकार बनेगी। मैं दस कदम उठाऊंगा और गरीबी को खत्म कर दूंगा।
झंडे-बैनर नहीं दिख रहे
बुधवार 1 नवंबर को महानदी न्यूज संवाददाता ने पाटन क्षेत्र का दौरा किया। रायपुर से अमलेश्वर पुल पार करते ही दुर्ग जिले की पाटन सीट की शुरुआत हो जाती है। पाटन पहुंचते तक किसी गांव में चुनाव का माहौल नहीं दिखा। न झंडे, न बैनर, न जुलूस, न हाथ जोड़कर घूमते प्रत्याशी। सब अपने अपने काम में लगे हुए।
लेकिन अगर आप चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए निकले हुए हैं तो आपकी नजर इक्का दुक्का घरों पर लगे झंडों की ओर चली जाती है। कहीं कहीं दीवारों पर वोट देने की अपील दिख जाती है। कुछ जगह तो केवल तुकबंदियां ही लिखी हैं। और कुछ जगह सिर्फ वोट देने की अपील। मुद्दा कोई नहीं है। कुछ जगह जरूर घर घर पानी, आवास, कर्ज माफी जैसे मुद्दों का जिक्र है। हमें एक झंडा रोड किनारे के एक खेत के कोने पर लगा दिखा। और दो झंडे किसी फार्म हाउस के गेट पर। दूर दूर तक कोई इंसान दिखाई नहीं दे रहा था। बस रोड से थोड़ी थोड़ी देर में गाडि़यां गुजर रही थीं।
हम लोग एक चाट गुपचुप के ठेले पर रुके। करीब आधे घंटे बैठे। इस दौरान करीब दस ग्राहक आए गए। किसी ने राजनीति की कोई बात नहीं की। जिस सड़क पर यह ठेला था, वह एक व्यस्त व्यापारिक सड़क थी। लेकिन एक भी झंडा-बैनर इस सड़क पर नहीं था।
पानी के लिए एक पान शॉप पर गए। यह एक साधारण पान शॉप से कुछ बड़ी थी। नमकीन के ढेर सारे पाउच थे। और पान मसाले के भी। कोल्ड ड्रिंक से भरा फ्रिज भी। शॉप वाले ने बताया कि इस बार शायद चुनाव आयोग की सख्ती काम कर गई है। हर चीज का खर्च खाते में जुड़ रहा है। वीडियो रिकार्डिंग हो रही है। शायद इसीलिए झंडा-बैनर नजर नहीं आ रहा।
कुछ लोगों से बात की कि यहां किसके पक्ष में कौन सी बात है और कौन सी बात खिलाफ। संयोग से ये सब कमिटेड लोग थे। इनकी राय का खास महत्व नहीं था। क्योंकि ये सब सुनी सुनाई और घिसी पिटी बातें कर रहे थे।
वैसे यहां मतदान 17 नवंबर को होना है। इसमें अभी वक्त है। नतीजों का अनुमान लगाने के लिए शायद इंतजार करना होगा।
हमें अनुमान ही तो लगाना है। हमें कौन सा नतीजा तय ही कर देना है। नतीजे तय करने के लिए तो चुनाव हो रहे हैं।