पांच-छह पसलियों में फ्रैक्चर था और हम बाइक चलाते हुए गरियाबंद से रायपुर आ गए
छत्तीसगढ़ में अखबार के पाठकों के लिए विनय शर्मा का नाम अनजाना नहीं है। वे लंबे समय तक देशबंधु से जुड़े रहे। इस दौरान उन्होंने कई यादगार तस्वीरें खींचीं। कई अविस्मरणीय रिपोर्टिंग में वे शामिल रहे। फोटोग्राफी के तकनीकी ज्ञान और एक प्रेस फोटोग्राफर के जीवन के अनुभवों का उनके पास खजाना है। मितभाषी और विनम्र विनय शर्मा ने उस दौर में अखबार के लिए फोटोग्राफी की है जब शाम को डार्करूम में पता चलता था कि फोटो सही आई है कि नहीं। तब आने जाने के साधन कम थे और सौ-दो सौ किलोमीटर तक तो रिपोर्टर और फाटोग्राफर बाइक से चले जाते थे। बाइक से गिरकर पसलियां टूट जाती थीं और उसी हालत में बाइक से गरियाबंद से रायपुर आ जाते थे। कभी शेर सामने दिख जाता था तो कभी भालू पीछे खड़ा मिलता था। कभी रात भर जंगल में विमान का मलबा तलाशते तो कभी नदी पहाड़ पार कर फंदे में फंसी बाघिन की फोटो खींचने पहुंच जाते। कभी जिंदा जलते हुए लोगों को देखकर मन विचलित हो जाता था तो कभी नदी में नहाते बच्चों की शरारतें मन मोह लेतीं। ऐसे अनुभवों को जानने के लिए महानदी न्यूज डॉट कॉम ने उनसे बात की। इसी की पहली किस्त-
मेरा जन्म उड़ीसा के कोरापुट जिले के उमरकोट में हुआ था। तब पिताजी की पोस्टिंग वहीं थी। यह जगह घने जंगलों के बीच है। वहां पहाड़ और नदी भी थी। जंगलों में जानवर भी थे। मलकानगिरी में मैं पहली-दूसरी कक्षा पढ़ा। स्कूल छह सात किलोमीटर दूर था जहां हम पगडंडियों से होकर जाते थे। कभी कभी जाकर पता चलता था कि अभी अभी तेंदुए या शेर यहां आकर गए हैं। जहरीले सांप भी वहां दिख जाते थे। पर मुझे कभी जंगलों से डर नहीं लगा। बल्कि उनसे एक लगाव हो गया जो आज तक बना हुआ है। जंगलों में रहते हुए हमने जामुन, चार जैसे फल बहुत खाए। पेड़ों पर चढ़ जाते थे। आज हम फिल्टर वाला पानी पीते हैं। तब नदी नालों का पानी ऐसे ही पी लेते थे और कभी बीमार नहीं पड़े। वहां हमें शुद्ध हवा मिलती थी जो शहर आने के बाद नहीं मिली। उमरकोट से पिताजी का ट्रांस्फर महाराष्ट्र के यवतमाल में हो गया। वहां हमारी पढ़ाई में मराठी शामिल हो गई। तीसरी चौथी वहां पढ़ने के बाद हम माना आ गए। यह सन 69 की बात होगी। पांचवी तक की पढ़ाई मैंने माना में की।
स्कूल कालेज के दिनों में मैं पायलट बनना चाहता था। हवाई जहाज को देखकर सोचा करता कि इसे कैसे उड़ाते होंगे। इसमें बैठने का कभी मौका मिल पाएगा कि नहीं। इस शौक के चलते मैंने एयर एनसीसी ज्वाइन की। वहां पहले तो रस्सी से बांधकर ग्लाइडर उड़ाए। फिर सचमुच का जहाज उड़ाने का मौका भी मिला। उस जमाने में एक छोटा पीले रंग का जहाज होता था जिसे शहर में उड़ता देखते थे। मैंने उसमें 25 घंटे की उड़ान भरी है। तब माना में एक फ्लाइंग क्लब था। उसी के जरिए हम विमान उड़ाते थे। हमारा एक तयशुदा रूट होता था। माना से उड़कर मांढर जाते थे। वहां फैक्ट्री की चिमनी से मुड़कर कुम्हारी-भिलाई होते हुए वापस माना आते थे। बाद में वह क्लब बंद हो गया। फिर कुछ पारिवारिक कारण भी ऐसे बने कि मैं पायलट बनने का अपना सपना पूरा नहीं कर सका। इसका मुझे बहुत दुख हुआ।
उस जमाने में पिताजी के पास कैमरा था जिससे वे बड़ी अच्छी तस्वीरें खींचते थे। उनका ट्रांस्फर अंदमान निकोबार हुआ तो वहां की बहुत सी दुर्लभ तस्वीरें उन्होंने खींचीं। मेरे फोटोग्राफर बनने की शुरुआत शायद वहीं से हो गई थी।
ग्रैजुएशन करने के बाद मैंने नौकरी के लिए छह सात जगह एप्लाई किया। उसी दौरान मेरे एक मित्र ने सुझाव दिया कि तुम फोटोग्राफी भी सीख सकते हो। उसने मुझे एक स्टूडियो वाले सज्जन से मिलवाया। वे एनएमडीसी के रिटायर्ड चीफ फोटोग्राफर एस. भारती थे। उन्होंने मुझे कैमरा पकड़ना सिखाया। उसकी बेसिक नॉलेज भी दी। वहां सुनीलकुमार जी से मेरा परिचय हुआ। वे वहां आते रहते थे। मैं उन्हें शौकिया खींची गई अपनी तस्वीरें उन्हें दिखाता था। उनमें से कुछ तस्वीरें उन्होंने देशबंधु में छापीं। वहां से मेरा मनोबल बहुत ज्यादा बढ़ा कि मैंने जो तस्वीरें खींची हैं वे कहीं छपने लायक हैं। देशबंधु में मुझे फोटो जर्नलिस्ट के रूप में लाने का श्रेय भी सुनीलकुमार जी को है। फोटो पत्रकारिता की बुनियादी चीजें सिखाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। फोटोग्राफी में डिप्लोमा कोर्स भी मैंने किया लेकिन वह सिर्फ एक डिग्री थी। असली ट्रेनिंग तो अखबार के दफ्तर में काम करते हुए मिली। हर दिन नया काम होता था। नई चुनौती होती थी। मैंने पत्रकारिता में ग्रैजुएशन का कोर्स भी किया। लेकिन असली पत्रकारिता काम करते हुए सीखी। अखबार के लिए फोटो खींचने के दौरान कई बार खतरों का सामना करना पड़ा। कई बार हादसे होते होते बचे।
शेरनी का पंजा फंदे में फंसा था लेकिन
उसके पास जाने से डर लग रहा था
एक दफे गरियाबंद की तरफ से संवाददाता की खबर आई कि जंगल से शेर के दहाड़ने की आवाज आ रही है। यह सुनते ही हम बाइक से रवाना हो गए। जहां से आवाज आ रही थी वह जगह घने जंगलों के बीच थी जहां पहाडि़यों को पार करके जाना पड़ा। हमने काफी लंबा रास्ता तय किया और वहां पहुंचे। दरअसल वहां एक शेरनी का एक पंजा शिकारियों के लगाए फंदे में बुरी तरह फंस गया था। वह दर्द से बेहाल थी और गुस्से में दहाड़ रही थी। उसकी आवाज दूर दूर तक सुनाई दे रही थी। आसपास के गांव वाले आवाज सुनकर वहां जमा हो चुके थे। मैंने शेरनी की फोटो लेनी शुरू की। धीरे धीरे उसके करीब जाकर फोटो लेने लगा। अच्छी फोटो लेने की भी इच्छा थी और डर भी लग रहा था कि अगर शेरनी का पंजा फंदे से छूट गया तो क्या होगा। आप कल्पना कर सकते हैं कि इतने गुस्से से भरी हुई शेरनी आजाद होने के बाद क्या कर सकती थी। खैर, उसकी कई तस्वीरें लीं। तब तक वन विभाग ने उसे ट्रैंक्युलाइज करने वाले इंजेक्शन से बेहोश कर दिया। इसके बाद भी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि उसका रौद्र रूप हम देख चुके थे। बाद में वह शेरनी नंदनवन लाई गई। मकर संक्रांति के दिन लाने के कारण उसका नाम शंकरी रखा गया। वहां वह अपने बाड़े में बहुत साल तक जिंदा रही।
लौटते समय हुआ हादसा
लौटते समय एक हादसा हुआ। हमारी बाइक की रफ्तार तेज थी। रास्ते में एक नाला पड़ा जिसका हम अनुमान नहीं लगा पाए। गाड़ी नाले में उतरी और जोर से उछली। हम छाती के बल सड़क पर गिरे। कुछ पल के लिए मेरी सांसें बंद हो गईं। मैंने छाती पर मुक्के मारे तब जाकर सांस लौटी। फिर मैंने अपने साथी रिपोर्टर की सुध ली। हम जैसे तैसे उसी हालत में वापस आए। दूसरे दिन जब दर्द ठीक नहीं हुआ तो डाक्टर को दिखाया। पता चला कि पांच-सात पसलियों में हेयर क्रैक आ गया है। इस घटना से हमें सबक मिला कि फोटो खींचने का जुनून अपनी जगह है लेकिन सावधानी भी जरूरी है क्योंकि असावधानी से जान भी जा सकती है या बड़ा नुकसान हो सकता है।
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