फेसबुक पर दो दिन से पत्रकारिता पर एक बहस छिड़ी है।
कांग्रेस की पृष्ठभूमि वाले वरिष्ठ नेता, वकील व लेखक कनक तिवारी ने पत्रकारिता पर दो लेख लिखे हैं। इन्हें वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग ने अपनी वॉल पर शेयर किया है। साथ में अपनी छोटी सी टिप्पणी भी की है।
पत्रकार अनिल द्विवेदी और मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के मीडिया सलाहकार पंकज झा इसके विरोध में मुखर हो गए हैं। उन्होंने अपनी टिप्पणी इस पर दर्ज की है।
रुचिर गर्ग ने इस पर जवाबी टिप्पणी की है।
पूरा विवाद इस प्रकार है-
रुचिर गर्ग ने कनक तिवारी का लेख शेयर करते हुए लिखा है-
हमारे समय के महत्वपूर्ण टिप्पणीकार,वरिष्ठ लेखक और जाने माने वकील कनक तिवारी जी ने पत्रकारिता पर दो अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख लिखे हैं। पत्रकारिता की दशा और दुर्दशा को समझने के लिए,पत्रकारिता के संकट,उसके अपने संघर्ष और ढोल पत्रकारिता के बीच सत्ता की लय पर नृत्य करने से इंकार करती पत्रकारिता को समझना हो तो इन्हें जरूर पढ़िए। निश्चित ही यह विषय बहुत व्यापक है लेकिन कनक जी के आलेख इस प्रश्न पर वैचारिक खलबली मचाते हैं।
इस पर पंकज झा ने लिखा है- एक मित्र के बताने पर फिलहाल टिप्पणी ही पढ़ पाया हूं, दोनों लेख बाद में कभी पढ़ता हूँ। हालाँकि बिना इन दोनों लेखों को पढ़े भी लेख के विषय वस्तु की कल्पना कर सकता हूँ। इतना अधिक स्पष्ट है आजकल सभी कलमजीवियों का पक्ष कि मजमून समझने के लिए अब लिफाफा तक खोलने की आवश्यकता नहीं होती। दोनों लेख और मेरे पूर्ववर्ती की टिप्पणी का लब्बोलुआब एक वाक्य में कहा जा सकता है कि – ‘सच्ची पत्रकारिता का आशय एक ऐसी विधा से है, जो भाजपा को ध्वस्त कर दे। जो मोदी को देश निकाला दे दे। यह पत्रकारिता की नयी परिभाषा है जो गढ़ने की कोशिश पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुई है। और क्या ही कहें। जरा सी ताकत मिल जाने पर पिछले पांच वर्ष में मीडिया और पत्रकारों के साथ यहां क्या-क्या किया गया, यह जनसामान्य तक को बेहतर पता है। एक एक शीर्षक तक डिसाइड करने वाले, पत्रकारों को बर्बरता से पीटने वाले, उनकी गाड़ी में ड्रग्स डाल कर जेल में ठूंस देने वाले, बुलडोजर चला कर घर खोद और तोड़ देने वाले, बिजली कटौती तक की बात करने पर राजद्रोह लगा देने वाले पक्ष के लोग अगर आज मीडिया की कथित पक्षधरता का रोना रोते हैं, तो क्या ही कहा जाय। लंबी बहस हो सकती है इस पर हालांकि फेसबुक इसका उचित मञ्च नहीं है, फिर भी आश्चर्य तो लगता ही है इस अरण्य रोदन पर। दुःखद है कि लोकतांत्रिक तरीके से मुकाबला नहीं कर पाने वाले, जनता से बुरी तरह ख़ारिज हो जाने वाले लोग अपने अंतिम आस के रूप में यह उम्मीद करते हैं कि 10 ऐसे हारे थके अधेड़, जिन्होंने जीवन भर सत्ता की रोटी पर पलते हुए पक्षधारिता की हो, वे यू ट्यूब पर कुछ भीड़ एकत्र कर भारत का, भारत के लोकतंत्र का मुकाबला कर लेंगे, ऐसे लोग जो स्वयं एक पंच का चुनाव तक नहीं जीत सकते वे, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को हांक लेंगे, यह ऐसा ही है जैसे निरमल बाबा की हरी चटनी खा लेने से किरपा आ जाने का मुगालता हो या किसी सुदूर देश में लिखे मार्क्स या मजहब की कोई पुस्तक रट लेने से भारत को समझ लेने का दावा हो। दुनिया आपकी सोच से काफी अधिक आगे बढ़ चुकी है नेता जी। अब चंद अंगुलियों पर नाचने वाला तंत्र संभव नहीं है। अब हर नागरिक बुद्ध की तरह आपसे पूछने को तत्पर है – मैं तो ठहर गया, तुम कब ठहरोगे अंगुलिमाल?
पुनश्च : आज तिवारी जी का लेख शेयर करने से अधिक आवश्यक उस दिन इनके पक्ष में खड़ा रहना उपयोगी हो सकता था जब बड़े बेआबरू करके तब के उन्मत्त सत्ता के कूंचे से निकाले गये थे ये लेखक। जीवन भर जिस समूह के लिये अपनी प्रतिभा खर्च करते रहे थे कचहरी से लेकर अखबारों के दफ्तर तक, सभा सम्मेलनों से लेकर सेमिनारों तक… लेकिन जब काठ की हांडी गलती से चढ़ गयी थी एक बार और अच्छे दिन जरा आ ही गये थे, तब दशकों की सेवा का फल दूध की मक्खी बना देने में निकला था, आवश्यक तब था कथित ‘निष्पक्षों’ का उमड़ पड़ना, किंतु कौरव सभा से अधिक चुप्पी देखी गयी थी। है न?
पंकज झा की टिप्पणी पर सहमति दर्ज करते हुए अनिल द्विवेदी ने लिखा है- कनक तिवारी जी ने आज की पत्रकारिता-पत्रकारों को ‘दलाल’ शब्द की संज्ञा दी है. बुरा नही लगता है क्योंकि कुछ तो हैं भी पत्रकारिता में. लेकिन आपकी टिप्पणी पढ़ने के बाद मन में सवाल यह कौंधा है कि आज का पत्रकार जिसे दलाल कहा जा रहा है— वह इतना चालाक क्यों नही हो सका कि वह प्रत्येक राजनीतिक दल-विचारधारा वाली सरकार में ‘एडजस्ट’ हो जाए या ‘लाभ का पद’ हासिल कर ले! कैसे सीखा जा सकता है यह हुनर! इसे दलाली कहते हैं या चालाक होना. कमाल का चातुर्य है यह.
अनिल द्विवेदी ने खुद रुचिर गर्ग की पोस्ट पर टिप्पणी की है- कनकतिवारी जी नामचीन लेखक, वकील हैं. इस दृष्टि से जब उनके लेख को हम पढ़ते हैं तो उम्मीद होती है कि न्यायपरक होगा लेकिन अफसोस कि उनके इस लेख में एकतरफा झुकाव स्पष्ट दिखता है. तिवारी साहब आरोप लगा रहे हैं कि मोदी ने देश के मीडिया को दो भागों में बांट दिया है. क्या यह नेहरू, इंदिरा और राजीव के युग में नहीं बंटा था. बीबीसी को तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने अपने बंगले में बुलाकर इंटरव्यू देने से इंकार कर दिया था. मतलब जो सरकार के खिलाफ हैं, भड़ास निकाल रहे हैं, सिर्फ वही पत्रकारिता कर रहे हैं. दिल्ली में केजरीवाल के बंगले में एक राज्यसभा सांसद महिला से क्या क्या नही हुआ, मगर इन बड़े नामचीन के मुंह में कुछ नही फूटा! बस्तर में ना जाने कितने पत्रकार जेल में डाल दिए गए, कई जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं, छत्तीसगढ़ में तीन-तीन पत्रकारों की हत्या हुई. आज तक न्याय नही मिला, तिवारी जी किसी का तो नाम जोड़ते. क्या दलित और वामपंथी विचारधारा को पुष्ट करने वाले ही असल पत्रकार हैं. #अनुरागद्वारी जी की चिंता से सहमत हूं मैं. हजारों पत्रकार सोशल-नेशनलिज्म वाली पत्रकारिता कर रहे हैं लेकिन उनके नाम याद नही रहे क्योंकि वे आपकी विचारधारा के साथ नही हैं. माफ करिएगा, आपकी और तिवारी जी की टिप्पणी ‘सिलेक्टिव जर्नलिज्म’ से ज्यादा कुछ नही है. आपको यह लेख इसलिए अच्छा लगा क्योंकि ये सभी पत्रकार आपकी विचारधारा वाले खेमे से हैं बस.
रुचिर गर्ग ने पंकज झा और अनिल द्विवेदी की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है-
डा. अनिल द्विवेदी सही कह रहे हैं आप…और पंकज झा जी भी! सारा मसला तो सिर्फ विचारधारा और खेमे का ही तो है!बाकी तो सब बढ़िया चल रहा है!
देश भर में पत्रकार सत्ता से बेखौफ सवाल पूछ ही रहे हैं! केजरीवाल के घर जो भी हुआ उसकी बढ़िया रिपोर्टिंग हो रही है,मणिपुर की भी बढ़िया रिपोर्टिंग हुई ही,आज भी हो रही है! नोटबंदी से लेकर कोरोना तक की पत्रकारिता बेमिसाल रही!पता नहीं क्यों Kanak Tiwari जी जैसे विचारवान लोगों को तकलीफ होती है और हम जैसे उनसे प्रेरित लोग उनसे सहमत हो जाते हैं!
और दुनिया में भारत की पत्रकारिता का डंका बज ही रहा है।उन सब बातों पर ध्यान मत दीजिए जो बताती हैं कि स्वतंत्र पत्रकारिता के मापदंडों पर भारत लगातार कहां आ गिरा है!ये सब तो भारत विरोधी लोग हैं इसलिए सारी स्वतंत्रता यहीं ढूंढने आ जाते हैं!! यह भी सुखद है कि आप लोग विचारधारा से प्रेरित नहीं हैं!
जवाब थोड़ी देर से दे रहा हूं। आज थोड़ा परेशान रहा क्योंकि छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से बाहर जाना था।शाम चार बजे , ट्रेन के आने के समय से कुछ पहले पता चला कि गाड़ी चार घंटे देर से चल रही है।अब यह छह घंटे से ऊपर देरी से चल रही है।विचारधारा वाले लोग बताते हैं कि किसी उद्योगपति का कोयला पहले पहुंचे इसलिए ऐसा होता है।आप लोग इसकी पुष्टि कीजिएगा और अनिल जी इस पर विस्तृत रिपोर्ट जरूर छापिएगा।रोज हजारों नागरिक परेशान हो रहे हैं। बाकी तो स्वतंत्रता मुबारक है ही!
कनक तिवारी ने भी अनिल द्विवेदी की टिप्पणी पर कहा है-
डा. अनिल द्विवेदी, देश की मीडिया को दो भागों में बांटने वाली बात मैंने टेलीग्राफ अखबार को उद्धरित करते हुए कही है। वह मेरा कथन नहीं है। बाकी कथन मेरा तो है। मैं गोदी मीडिया का शत्रु हूं ऐसा कह सकते हैं आप और बहुत पत्रकारिता मैंने की है। शायद आपको मालूम नहीं है। वैसे मेरा उसूल यही है कि अपनी प्रोफाइल लॉक करके कोई मेरी पोस्ट पर टिप्पणी करेगा तो उसे मैं ब्लॉक करूंगा। प्रोफाइल खोलिए फिर अच्छे से बात करेंगे।
अनिल द्विवेदी ने उन्हें प्रणाम करते हुए लिखा है- सर, आपको याद दिला दूं कि आपसे पहला परिचय स्व.बबन प्रसाद मिश्र जी ने कराया था कान्यकुब्ज भवन में. आपके कई लेख पढ़े हैं, सीखा भी है आपसे. एक बार इंडिया न्यूज की टीवी डिबेट में भी साथ थे. मैने अपने तर्क रख दिए हैं लेकिन आपसे बहस नहीं कर सकता।
कनक तिवारी ने लिखा है- प्रोफाइल मेरे लिए खोल दीजिए।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पंकज झा की प्रतिक्रिया नहीं आई है।
(महानदी न्यूज डॉट कॉम डेस्क)
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December 12, 2024