रायपुर। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डॉ. दिनेश मिश्र ने धर्म के नाम पर पशुओं की बलि को गलत बताते हुए इस पर रोक लगाने की मांग की है।
डॉ. मिश्र ने फेसबुक पर अपनी पोस्ट में कहा है कि किसी भी जीव को जीवित रहने का मौलिक अधिकार है चाहे वह इंसान हो या जानवर । किसी भी धार्मिक परम्परा या अनुष्ठान की आड़ में उसके प्राण लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है। लेकिन पशु बलि ऐसी ही एक अंधविश्वास भरी परम्परा है जिसमें गाय,भैंस या बकरे की बलि इस उम्मीद से दे दी जाती है कि उस पशु को अर्पित करने से ईश्वर प्रसन्न हो जाएंगे तथा बलि चढ़ाने वाले की सारी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी।अपनी मृगतृष्णा की पूर्ति के लिए दूसरे जीव का जीवन हरण करने की यह प्रथा भी कितनी विचित्र है।अपने लाभ के लिए किसी दूसरे की जान लेकर उसके खून की धार बहाकर,उसके मांस के टुकड़ों को उदरस्थ कर क्या कोई धार्मिक क्रिया पूरी हो सकती है या ईश्वर के किसी भी स्वरूप को प्रसन्न किया जा सकता है अथवा इच्छाएं पूर्ण की जा सकती हैं? या यह सिर्फ एक मृग मरीचिका है। ऐसी क्रूरता को, जिसे कोई सहृदय इंसान भी नहीं पसंद कर सकता, भला दया के सागर माने जाने वाले ईश्वर कैसे स्वीकार करेंगे। छत्तीसगढ़ के कुछ धार्मिक स्थलों में यह प्रथा बंद हुई है, लेकिन कुछ स्थानों में यह आदि परम्परा के रूप में अब भी जारी है जिसके संबंध में जागरूक नागरिकों को विचार करना चाहिए।
डॉ. मिश्र के मुताबिक पशु-बलि के संबंध में प्रत्यक्ष दर्शियों से मिली जानकारी से आंखों में एक ऐसा वीभत्स दृश्य उभर जाता है जिसमें एक निरीह पशु को खींचकर, धकेलकर ऐसे स्थान पर ले जाया जाता है जो कथित रूप से पवित्र है,धार्मिक है, प्राणरक्षक है। लेकिन इन पशुओं के लिए वह स्थान न ही पवित्र,न ही धार्मिक और न ही प्राण रक्षक है बल्कि प्राणघातक है। एक मासूम पशु को बलि वेदी पर ले जाकर उसे नहला धुलाकर साफ किया जाता है। मिठाई खिलाई जाती है तथा अगले ही पल धारदार हथियार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाता है। उसके खून को देव प्रतिमा पर बलि वेदी पर अर्पित किया जाता है। इस बर्बर हत्या को परम्परा का जामा पहनाकर पशु के शरीर को प्रसाद के रूप में वितरित कर दिया जाता है। खून, चीखें, गोश्त, गंडासा, तड़पता हुआ धड़ वीभत्स दृश्य प्रस्तुत करते हैं। पर्व त्योहारों के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों निरीह पशुओं की जान चली जाती है। हर धर्म यह बात दोहराता है कि हर जीव में ईश्वर का अंश है चाहे वह पशु हो या पक्षी या इंसानष ईश्वर की नजर में सब बराबर हैं। फिर भला अपने ही अंश को मारने से ईश्वर क्यों प्रसन्न होगा? अपने शरीर के किसी अंग को खत्म करने से बाकी शरीर कैसे खुश रह सकता है?
डा. मिश्र ने कहा है कि हिंसा मनुष्य का मूल स्वभाव नहीं है। आदि मानव असभ्य भले ही रहा हो लेकिन वह जंगल में रहते हुए भी पशुओं का वध सिर्फ दो ही कारणों से करता था। एक तो अपने बचाव के लिए तथा दूसरा अपनी भूख मिटाने के लिए वह भी तब जब उसके पास खाने-पीने, भोजन के विकल्प नहीं थे। यहां तक कि जंगली जानवर भी भूखे न रहने पर अन्य जानवरों का शिकार नहीं करते। लेकिन जब मनुष्य ने पशुओं के साथ रहना सीख लिया, उन्हें पालने लगा, कृषि, व्यवसाय, परिवहन, दूध वगैरह के लिए उपयोग करने लगा,तब उसने उन्हें अपना साथी मान लिया तथा उनका पालन व सुरक्षा भी करने लगा। लेकिन जैसे-जैसे वह सभ्य हुआ उसमें संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी, लोभ बढ़ा, विभिन्न प्रकार के कर्मकांड, उपासना पद्वतियां बनीं। प्राकृतिक आपदाओं, महामारियों, रोगों से प्राण रक्षा के लिए झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र,भूत-प्रेत की मान्यताएं, टोने-टोटके पर विश्वास करने लगा। विभिन्न अनुष्ठानों व पशुबलि, नरबलि जैसी क्रूर परंपराएं बनीं। आज भी ग्रामीण अंचल में अनेक धार्मिक स्थलों में जनजातियों में विभिन्न कारणों से बलि की परम्परा विद्यमान है।
डा. मिश्र के मुताबिक पशुबलि के कारणों में धार्मिक आस्था या अंधविश्वास, लोभ या स्वार्थ सिध्दि की कामना है। चाहे वह सिध्दि प्राप्त करने के लिए हो या गड़ा खजाना प्राप्त करने के लिए या औलाद प्राप्ति के लिए । अनेक मामलों में मनौती पूरी करने के लिए पशुबलि दी जाती है, तो कभी बीमारियों को ठीक करने के लिए। कुछ लोग धार्मिक कारणों से पशुबलि को जायज ठहराते हैं तो कुछ परम्परा का हवाला देते हैं। जबकि इस संबंध में सभी धर्मों व धर्माचार्यों का मत स्पष्ट है। भगवान महावीर ने कहा है कि अहिंसा परमो धर्म:। अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है तो भला बलि जैसी हिंसक परम्परा कैसे धार्मिक हो सकती है। गौतम बुद्व ने तो अनेक स्थानों पर अहिंसा पर ही जोर दिया है। उन्होंने कहा है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ भगवद् गीता के सत्रहवें अध्याय के चौथे श्लोक में ऐसी श्रध्दा व कार्य को, जिससे किसी दूसरे प्राणी को पीड़ा या नुकसान पहुंचे या उसकी जान चली जाए, तामसी श्रध्दा, अंधकार या अंधश्रध्दा कहा गया है। तथा यह भी कहा गया है कि ऐसी श्रध्दा से किसी का कल्याण नहीं होता तथा यह ईश्वर को स्वीकार नहीं है।
डा. मिश्र के मुताबिक ग्रामीण अंचल में शिक्षा का उचित प्रसार-प्रसार नहीं होने से स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता नहीं पनप पाई है। ऐसे लोग बीमार पड़ने पर बैगा,गुनिया के पास जाते हैं जो बीमारियों को जादू-टोने, नजर लगने के कारण बताकर उनसे बीमारी ठीक करने के लिए मुर्गे,बकरे,दारू की मांग करता है, बलि दे देता है। मनोरोग से पीड़ित मनुष्य को भूत-प्रेत, जिन्न पीड़ित बताकर कथित बैगा, सिरहा लोग बीमार मनुष्य के शरीर से भूत उतारने के नाम पर पशुबलि करवाते हैं। गड़ा खजाना ढूंढने व बिना मेहनत के अमीर बन जाने की कामना भी पशुबलि का कारण है। कुछ समय पूर्व जशपुर के पास खजाना पाने के लोभ में बीस नख वाला कछुआ पाने व बलि देने के चक्कर में दो व्यक्तियों की मौत हो गई। तांत्रिक सिद्वि पाने के लिए मोर, भैंसे की बलि की घटनाएं भी प्रकाश में आती रहती हैं।
उन्होंने कहा है कि दक्षिण भारत में कुछ प्रसिद्व धार्मिक स्थल, कलकत्ता, कामाख्या, बनारस सहित छत्तीसगढ़ में भी अनेक स्थानों पर पशु बलि सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रयास से बंद हुई है लेकिन बस्तर, चाम्पा,चन्द्रपुर, तुरतुरिया, रायगढ़ सहित कुछ स्थानों पर भी अब भी परम्पराओं के निर्वाह के नाम पर जारी है। पशु बलि को रोकने के लिए दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में, राजस्थान,गुजरात मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ में, केन्द्रशासित प्रदेश पाण्डिचेरी में पशु बलि निषेधक कानून हैं लेकिन जन जागरण के अभाव के कारण प्रभावी नहीं हो पा रहे है। पं.मदनमोहन मालवीय ने तो कलकत्ता के काली मंदिर के सामने सभा लेकर पशु बलि को अधार्मिक व गैरजरूरी कृत्य कहा था। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि हिंसा मिथ्या है, अहिंसा सत्य है। अहिंसा के बिना मनुष्य पशु से बदतर है। कहीं कहीं पर लोग पशु बलि अनुष्ठान व तप का आवश्यक अंग मानते हैं पर गीता के सत्रहवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में यह पुन: कहा गया है अहिंसा पवित्रता, सरलता ही श्रेष्ठ तप है जबकि व्यर्थ की हिंसा त्याज्य है। किसी भी प्रकार की हिंसा चाहे वह धर्म के नाम पर,परम्पराओं के नाम पर अपनी स्वार्थसिद्वि के नाम पर हो त्याग देना चाहिए। मनुष्य को बेकसूर पशु की बलि देने के बदले अपने अंदर की पशुता की बलि देनी चाहिए। अपने लोभ का बलिदान करना चाहिए।
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December 12, 2024