
डायरी 9.2. 2025
कल रात बस्तर से लौटा हूं। दो दिनों के लिए एक रिपोर्टर साथी के साथ गया था। हम लोग कुआकोंडा ब्लाक के एक गांव में गए। लोगों से बात की।
ये लोग ज्यादा पैसे कमाने के लिए हैदराबाद जाते हैं जो यहां से करीब 300 किलोमीटर दूर है। वहां पत्थर घिसाई वाला कोई कारखाना है जहां पत्थरों की धूल उड़ती रहती है। इससे इनके फेफड़ों पर असर पड़ता है। कुछ लोगों में टीबी के लक्षण भी पाए गए। कुछ इलाज से ठीक हो गए। कुछ की हालत गंभीर है और वे रायपुर के बड़े अस्पताल में भर्ती हैं। रिपोर्टर ने बताया कि उनके अधिक दिन जिंदा रहने की संभावना नहीं है। मौत भी उन्हें आसानी से नहीं आएगी।
िरपोर्टर ने रायपुर में बैठे बैठे स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों और गांव के प्रभावित लोगों से बात कर ली थी। वह पिछले ढाई महीने से इस खबर पर काम कर रहा था। रास्ते में उसने किरंदुल के एक स्वास्थ्यकर्मी से बात की। उसने कहा कि जल्दी आइए क्योंकि माहौल ठीक नहीं है। हमारे लिए भी और आपके लिए भी। एक दिन पहले नक्सलियों ने पंद्रह बीस किलोमीटर दूर किसी गांव में सरपंच पद के एक प्रत्याशी की हत्या कर दी थी। इससे पहले एक दो और हत्याएं हुई थीं।
हम लोग करीब चार सौ किलोमीटर का सफर करके किरंदुल पहुंचे। यह वह जगह है जहां से पहाड़ों को काटकर बेचा जा रहा है। बरसों से। रिपोर्टर ने कहा कि यहां लोग कम नजर आ रहे हैं। मैंने कहा- यह बस्ती लोगों के लिए बनाई ही नहीं गई है। एक कारोबार के लिए मशीनों की जरूरत थी। मशीनों को चलाने के लिए लोगों की जरूरत थी। बस, उसी जरूरत के हिसाब से लोग हैं।
हालांकि लोग थे। हम जैसे ही लोग थे। राजधानी और आसपास के किसी भी शहर, गांव की तरह के लोग थे। चुनाव का जबरदस्त माहौल था। यहां चुनाव सामग्री मिलती है जैसे बोर्ड लगे थे। पोस्टरों की भरमार थी। डीजे बजाती हुई गाड़ियां घूम रही थीं। एक गाड़ी पर मेरा ध्यान गया जिसमें प्रत्याशी के पक्ष में छत्तीसगढ़ी गाना बज रहा था। किरंदुल में छत्तीसगढ़ी गाना सुनना एक नया अनुभव था। वैसे यहां चुनाव लड़ने वालों के नाम भी हमने पढ़े। ज्यादातर आदिवासी नहीं थे। ये बाहरी लोग थे जो यहां आकर बस गए थे। मुझे अमरीका और वहां के मूल निवासी रेड इंडियन्स की याद आई। आज अमरीका को कौन रेड इंडियन्स के नाम से जानता है? आज अमरीका में कितने रेड इंडियन्स बच गए हैं? आज बाहर से आकर जो लोग वहां शासन कर रहे हैं वे बाहर से आए हुए लोगों को अवैध प्रवासी कहकर उनके देश वापस भेज रहे हैं।
किरंदुल से हमें हमारे गाइड स्वास्थ्य कर्मी के पास जाना था। फोन पर उसने हमें जिस रास्ते से आने के लिए कहा वहा अरनपुर की ओर जाने वाला रास्ता था। हमने अरनपुर की ओर जाने वाली सड़क की कहानी पढ़ी थी। नक्सली इसे बनाने का विरोध कर रहे थे। सड़क कड़ी सुरक्षा के बीच बनाई गई। नक्सलियों के हमलों में कई जवान और कई मजदूर मारे गए। कई गाड़ियां जलाई गईं। हालांकि हम जहां जा रहे थे, खून खराबे वाली जगह उससे दूर थी। मगर इलाका तो वही था। हमें यह अहसास होने लगा कि हम कैसी जगह में आ पहुंचे हैं।
स्वास्थ्य कर्मी बाइक लेकर तैयार था। उसने कहा- मैं बाइक से आगे आगे चलता हूं, आप लोग मेरे पीछे पीछे आइए। हमने उसे कार में बिठा लिया। हम लोगों को चार सौ किलोमीटर के सफर में उतनी थकान नहीं लगी जितना हम किरंदुल और उसके आसपास की सड़कों पर आना जाना करके थक गए।
पहले गांव में पहुंचे तो वहां एक दो महिला स्वास्थ्य कर्मी और एक दो गांव वाले मौजूद थे। एक महिला स्वास्थकर्मी एक कमउम्र लड़की थी। वह अपने काम में होशियार लगी। उसे गांव की आबादी, वहां रहने वाले लोगों की हिस्ट्री वगैरह पता थी। उसने हमारे सारे सवालों के बेझिझक जवाब दिए। लौटने से पहले मैंने पूछा कि वह रहती कहां है? उसने कहा किरंदुल में। यहां तक कैसे आती हैं? उसने कहा- दोपहिए से। मुझे अचरज हुआ। ऐसे इलाके में, ऐसे रास्तों से सात आठ किलोमीटर आना जाना आसान तो नहीं होगा।
यहां से दूसरे गांव पहुंचे। वहां कई लोगों से बात हुई। जंगलों के बीच बसा यह भी शांत सा गांव था। किसी घर से डीजे पर गाना भी बज रहा था। एक युवक ने उम्र पूछने पर ट्वेंटी फाइव कहा। जंगल और गांव में शहर इस तरह धीरे धीरे जगह बनाता है। यह आप पर है कि आप इसे किस नजरिए से देखते हैं। वैसे देखें तो इस गांव में कुछ नया नहीं था। सब कुछ हम लोगों जैसा ही थी। घर थे, आंगन थे, बाउंड्री थी, मुर्गियां थीं, चारपाइयां थीं, बर्तन थे। खेत थे, पगडंडियां थीं, स्कूल था, यूनिफार्म पहने बच्चे थे। हां यह जरूर है कि यह जंगल के बीच बसा था।
घरों की बाउंड्री लकड़ियों और बांस की बनी थी। लेकिन ऐसा तो मैदानी इलाकों के गांवों में भी होता है। एक युवक को हिंदी कम आती थी। उससे हमने एक स्वास्थ्य कर्मी की मदद से बात की। वह स्थानीय थी और उसे गोंडी आती थी। दूसरी स्वास्थ्यकर्मी कांकेर की थी और छत्तीसगढ़ी बोल रही थी। जिस स्वास्थ्यकर्मी के साथ हम गांव आए थे वह गरियाबंद का था। यानी उसे भी छत्तीसगढ़ी आती थी।
हमने एक जगह दो तीन लोगों को ताड़ के पेड़ से ताड़ी उतारते देखा। यहां से थोड़ी दूर हैंडपंप पर एक महिला अपने दो बच्चों के साथ अंकुरित मक्का धो रही थी। पूछने पर उसने बताया कि इससे लांदा बनाया जाएगा। यह एक प्रकार का नशीला पेय होता है।
यहां के लोगों ने बताया कि ज्यादा पैसा मिलने के कारण वे लोग हैदराबाद गए। काम ज्यादा होने के कारण लौट आए। इस गांव में फेफड़े की बीमारी से कुछ लोगों की मौत भी हुई है। लौटते समय रिपोर्टर साथी ने एक युवक की मां से कहा- क्यों भेजा बेटे को हैदराबाद? अब मत भेजना। उसने कहा- अब नहीं भेजूंगी।
मैंने सोचा- इस गांव के लोग अगर कोई कुटीर उद्योग शुरू कर दें और उसे बाजार मिल जाए तो शायद उनकी रोजी रोटी की समस्या हल हो जाएगी। लेकिन सोचा कि सदियों से इनकी रोजी रोटी चल ही रही है। और ज्यादा पैसों के लालच से कौन बच पाता है? फिर घर से बाहर निकलकर दुनिया देखने की चाहत भी होती है। बस गलत ये है कि मजबूर होने के कारण ये लोग शोषण और प्रताड़ना का शिकार होते हैं। यह तो दुनिया के हर मजबूर के साथ होता है। हम लोग, जो इनकी खबर बनाने आए थे, रास्ते भर अपनी मजबूरियों और प्रताड़ना की ही बात करते आए थे।
मैंने कहीं पढ़ा था कि अगर आपके पास अपना कोई एजेंडा नहीं है तो दूसरा आदमी आपको अपने एजेंडे के लिए काम से लगा देगा। बस्तर में यही हो रहा है।
गांवों से किरंदुल लौटकर हमारे साथी ने काम से लौट रहे श्रमिकों को देखकर कहा- यही लोग यहां के असली मालिक हैं। इनकी हालत देख लो। अपने ही घर में मजदूर हो गए हैं।
साथी ने कहा- मुझे लगता है एक दिन ऐसा आएगा जब दुनिया के संसाधनों से मालिकाना हक खतम हो जाएगा। इन पर सबका हक होगा। क्योंकि मालिकाना हक वाली बात खाई पैदा रही है।
बस ऐसी ही झूठी दिलासा जैसी बातें करते हुए हम वहां से लौट आए.