हम दो दोस्त घूमने निकले थे। फोटोग्राफी के शौक के साथ।
शहर से दूर एक स्कूल के पास पहुंचे। कुल जमा दस बच्चे थे वहां। यह स्कूल विशेष पिछड़ी जनजाति के बच्चों के लिए बनाया गया था। एक टीचर थी। स्कूल की छुट्टी हुई तो टीचर ने दो तीन बच्चों को अपनी दुपहिया में बिठाया और अपने साथ ले गईं। शायद उन बच्चों का घर रास्ते में पड़ता था।
तीन बच्चे दूसरे रास्ते पर जाने लगे। मैंने उन्हें आवाज दी। और उनसे पूछा- रस्सी कूदना किसको आता है? बच्चे रुके। एक दूसरे से कुछ बात की। फिर हमारे पास आ गए।
हमने कहा- हमारे पास रस्सी है। कूद कर दिखाओगे?
दो बच्चों ने सिर हिलाया। एक लड़का, एक लड़की।
तीसरी लड़की ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
दो बच्चों ने बारी बारी से रस्सी कूद कर दिखाई। हमने उनकी तस्वीरें खींचीं।
फिर हमने बच्चों को टेनिस बॉल दी और निशाना लगाने कहा।
दोनों बच्चों ने निशाना लगाया। तीसरी खड़ी रही।
हमने फिर फोटो खींचे।
विदा होने से पहले हमने बैग से चॉकलेट निकाले और बच्चों को दिए।
दो बच्चों ने तो चॉकलेट ले ली, तीसरी अपनी जगह खड़ी रही।
उससे कहना पड़ा- आओ तुम भी लो।
उसने आकर चॉकलेट ले ली।
हमने उनसे विदा ली।
लौटते समय हम बच्चों के बारे में चर्चा करने लगे। मैंने कहा- तीसरी बच्ची ने कुछ नहीं किया। नहीं तो और मजा आता।
दोस्त ने कहा- शायद इसीलिए वह चॉकलेट लेने भी नहीं आ रही थी।
हम आम लोग ऐसे ही होते हैं।
जो अपने हक का न हो उस पर अपना हक नहीं जताते।
जो है उसमें खुश रहते हैं।
ये अलग बात है कि ज्यादा से ज्यादा बटोर लेने की होड़ में लगी दुनिया इसे अच्छा नहीं मानती।
पर ये सच्चे मोती अभी भी मिलते हैं। उजड़े हुए लोगों में।