कल ही हम एक यादगार यात्रा से लौटे हैं। यह यात्रा थी गंगरेल बांध की। यह छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी नदी, महानदी पर बना प्रदेश सबसे बड़ा बांध है। इस बांध से आसपास के कई जिलों के हजारों एकड़ खेतों की सिंचाई होती है। भिलाई इस्पात संयंत्र को भी यहां से पानी दिया जाता है। यहां पन बिजली भी पैदा होती है। इसके आसपास जंगल हैं जिनमें तरह तरह के पेड़ पौधे और जीव जंतु हैं। इन दिनों यह इलाका हाथियों की पसंद बना हुआ है।
गंगरेल में शहरी सुविधाओं का भी विकास किया जा रहा है। जलाशय के किनारे यहां कॉटेज बनाए गए हैं जिनमें किराया देकर रुका जा सकता है। अब यहां बोटिंग की भी सुविधा है। जहाज जैसी बड़ी बोट से लेकर छोटी बड़ी कई तरह की मोटरबोट यहां उपलब्ध हैं। यहां रेस्तरां भी हैं जिनमें सैंडविच और कोल्ड ड्रिंक जैसा आधुनिक खानपान मिल जाता है। कुल मिलाकर दोस्तों और परिवार के साथ घूमने फिरने के लिए यह एक बेहतरीन जगह है।
घूमने का आनंद तभी आता है जब मौसम अच्छा हो। हम ऐसे मौसम में गंगरेल गए जब तीन चार दिन की बारिश के बाद मौसम ठंडा हो गया था और बादल पूरी तरह छंटे नहीं थे। इसलिए जाते समय धूप तेज नहीं लगी और हवा भी ठंडी थी। दुपहर में हम गंगरेल बांध के किनारे थे जहां इतनी गर्मी नहीं थी। लौटने के लिए हमने शाम का समय चुना। तब भी मौसम सुहाना था।
हमने गंगरेल जाने के लिए पुराने धमतरी रोड को चुना। इधर से धमतरी दस बारह किलोमीटर पास पड़ता है। नेशनल हाईवे से यह दूरी 77 किलोमीटर होती है। गंगरेल बांध धमतरी से 14 किलोमीटर दूर है।
पुराना धमतरी रोड किसी जमाने में बहुत खराब हालत में था। बारिश में इधर से गुजरना मुश्किल होता था। सड़क पर बड़े बड़े गड्ढे बन जाते थे जिनमें पानी भर जाता था। बसें भी मुश्किल से चल पाती थीं। हमारी किस्मत थी कि हमें एकदम बढि़या सड़क मिली जो हाल ही में बनी है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद जो बड़ा बदलाव आया है वह यह है कि यहां गांव गांव तक अच्छी सड़कें बन गई हैं। आना जाना बहुत आसान हो गया है।
पुराना धमतरी रोड गांवों से होता हुआ गुजरता है। इन गांवों में मुख्यत: खेती किसानी से जुड़े लोग रहते हैं। और रास्ते भर सड़क के दोनों ओर आपको खेत मिल जाते हैं। यह इलाका भरपूर पानी वाला इलाका है जहां साल में दो और तीन फसलें भी ली जाती हैं। बड़ी संख्या में पंप हैं जिनके दम पर गर्मियों में भी धान की खेती होती है। हालांकि पर्यावरण की चिंता करने वाले बताते हैं कि पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल से धरती के भीतर का पानी कम होता जा रहा है। आने वाले दिनों में यह स्थिति और खराब होगी। हालांकि इस बात को महसूस करने के लिए पर्यावरणविद होने की जरूरत नहीं है। गांव गांव के लोग जानते हैं कि उन्हें गर्मियों में पानी की तंगी का सामना कैसे करना पड़ता है। इसीलिए धान की जगह कोई दूसरी फसल लेने की हिमायत की जाती है। कुछ लोग श्री पद्धति से धान लगाने की वकालत भी करते हैं जिनका कहना है कि इसमें पानी कम लगता है और उत्पादन भी ज्यादा होता है।
पुराने धमतरी रोड पर अब ट्रैफिक काफी बढ़ गया है। और सड़क किनारे के गांवों में बदलाव आने लगा है। शिक्षा के क्षेत्र में विकास नए स्कूल कालेजों को देखकर महसूस होता है। लेकिन कुछ ऐसा भी विकास दिखता है जो अच्छा तो नहीं कहा जा सकता। जगह जगह शराब की दुकानें और अंडे के ठेले देखकर हमारे जैसे लोगों को बुरा लग सकता है। पर यह दुनिया है।
धमतरी करीब जाकर हम बाईपास के नीचे से गुजरे। यह नई सड़क नेशनल हाईवे पर संबलपुर से कटी है और अर्जुनी, देमार, खपरी, मुजगहन, लोहरसी होते हुए श्यामतराई में खुलती है। जिन लोगों को धमतरी शहर से कोई काम नहीं है, जिन्हें जगदलपुर या आंध्रप्रदेश की ओर जाना है वे इस बाईपास का उपयोग कर सीधे अपने रास्ते निकल सकते हैं। इससे धमतरी पर भी अनावश्यक गाडि़यों का बोझ कम होगा। यह धमतरी की बहुत पुरानी मांग थी जो अब पूरी हुई है। एक और मांग रेलवे के ब्राड गेज की है जिस पर काम चल रहा है। बल्कि अब तो यह लाइन धमतरी से आगे कोंडागांव तक जाने वाली है। ऐसी एक खबर कल के ही अखबार में छपी है।
धमतरी एक मिली जुली संस्कृति वाला शहर है। यहां आधुनिक कालोनियां भी हैं और परंपरागत जीवन शैली वाले मोहल्ले भी। यहां पिज्जा बर्गर मोमोज भी मिलते हैं और लाल मिर्च की चटनी के साथ मूंग बड़ा भी। यहां स्वीट कॉर्न भी मिलता है और केसरवा कांदा भी। आसपास के जंगलों में बारिश के दिनों में फूटू होता है जो काफी महंगा बिकता है। यह कुकुरमुत्ते या मशरूम की एक प्रजाति है जिसे वैज्ञानिक लाख कोशिश करके भी लैब में उगा नहीं सके हैं। यह दीमक की बांबी पर एक खास मौसम में उगता है। चूंकि यह थोड़े दिनों के लिए होता है इसलिए इसके भाव भी काफी होते हैं। धमतरी को लाख उद्योग के लिए भी जाना जाता है। लाख एक तरह का गोंद जैसा पदार्थ है जो पेड़ों से मिलता है और जिससे चूडि़यां बनती हैं।
धमतरी पहुंचने के बाद हमने गंगरेल का रुख किया। नेशनल हाईवे पर अंबेडकर चौक से इसके लिए रस्ता कटता है। यूं तो लोग रुद्री होते हुए गंगरेल जाते हैं लेकिन हमने गोकुलपुर से कटने वाली सड़क पकड़ी क्योंकि यह रास्ता जंगलों से होते हुए गुजरता है। हमें पतझड़ के जंगल देखने थे जिनकी खूबसूरती का जवाब नहीं। पतझड़ के समय इधर के ज्यादातर पेड़ों के पत्ते झर चुके होते हैं। कुछ की सिर्फ टहनियां दिखती हैं। कुछ में नए पत्ते आ रहे होते हैं। कुछ में आ चुके होते हैं। महुए अमलतास और पलाश में फूल आ चुके होते हैं। महुए की नई लाल पत्तियों पर जब सूरज की रोशनी पड़ती है तो इनकी चमक देखते बनती है। हम भाग्यशाली थे कि हमारा सामना हाथी से नहीं हुआ। आज हमने खबर पढ़ी कि इसी इलाके से होता हुआ एक हाथी नेशनल हाईवे पार करके गुरुर की तरफ गया है और इसकी वजह से गई गांवों में अलर्ट घोषित किया गया है।
गंगरेल बांध बनाने के लिए साठ के दशक में सर्वे हुआ था। बताते हैं कि पहले सटियारा गांव में बांध बनाया जाना था। फिर इंजीनियरों ने कुछ आपत्तियां जताईं जिसके कारण वह जगह छोड़ दी गई। फिर गंगरेल गांव में यह जगह ठीक पाई गई। 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका शिलान्यास किया। 1978 में यह बनकर तैयार हुआ। बांध बनता है तो आसपास के गांव डूब जाते हैं। गंगरेल बांध बनने से 55 गांव डूबे जिनमें रहने वाले 5000 लोगों को कहीं और शरण लेनी पड़ी। इनमें से कई अभी तक मुआवजे और पुनर्वास के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।
जंगल की खूबसूरती का आनंद लेते हुए हम गंगरेल जलाशय के किनारे पहुंचे। टिकट काउंटर पर बोटिंग के लिए टिकट के दाम पूछे। दाम ज्यादा लगे तो कुछ देर सोचा। फिर तय किया कि इतनी दूर से आए हैं, बोटिंग कर ही ली जाए। रोज रोज तो आना नहीं है। हम लोगों ने हजार रुपए में तीन सीटर बोट का टिकट लिया। हमें सेफ्टी जैकेट पहनाया गया। हमने देखा युवकों का एक समूह बोट वालों से पूछ रहा था कि क्या बोट हम खुद चला सकते हैं? बोट वाले ने साफ मना कर दिया। खैर, हम अपनी बोट में बैठे। बोट चलाने वाला अपनी जगह पर बैठा। बोट स्टार्ट हुई और हवा से बातें करने लगी। हमने पानी छूकर देखा, एकदम ठंडा था। कभी इतनी रफ्तार वाली बोट में नहीं बैठे थे। इसलिए रोमांच के साथ साथ डर भी लग रहा था। पानी के बीच पहुंचकर समंदर में होने का अहसास होता है। किनारे बैठकर यह अंदाजा नहीं लगता। फिर बांध को एक नए एंगल से देखने का भी मौका मिलता है। हमने जितना सोचा था, राइड इससे ज्यादा देर की थी। बहुत मजा आया। हमने अपनी तस्वीरें भी उतारीं।
यहां नारियल पानी, शर्बत और खाने पीने की दूसरी चीजें मिल रही थीं। हमने सोडे वाला नींबू शरबत पिया और सैंडविच खाया। यह सुविधा बोटिंग वाली जगह पर है। लौटते समय हम सड़क किनारे पसरा लगाकर बैठे दुकानदारों के सामने से गुजरे। ये लोग आसपास रहने वाले होंगे। इन्हें नया रोजगार तो मिला है लेकिन इनकी स्थिति इतनी भी अच्छी नहीं लगी। हमने आपस में चर्चा की कि यहां गढ़ कलेवा जैसा एक केंद्र खोलना चाहिए जिसमें इस इलाके का खानपान मिल सके। पिज्जा बर्गर तो हम कहीं भी खा सकते हैं। हमने एक पसरे से ठंडे पानी की बोतल ली। धूप तेज थी इसलिए हम कुछ समय छांव में आराम करने के लिए रुके। चूंकि करीब 80-90 किलोमीटर का सफर तय करना था इसलिए यहां से रवाना हुए। जंगल की कुछ तस्वीरें उतारीं जो आते समय नहीं उतार पाए थे। हमने जंगल से लकडि़यां बटोरकर सिर पर लादकर ले जा रही महिलाओं को देखा और सोचा कि ये लोग कितनी मेहनत करते हैं। हमसे तो कुछ दूर पैदल नहीं चला जाता।
सुबह से शाम तक की यात्रा में हम ढेर सारे अनुभव लेकर लौटे। यह सोचते हुए कि अबकी बार ज्यादा समय लेकर आएंगे ताकि माडमसिल्ली और दूसरी जगहें भी देख सकें।
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