सुप्रसिद्ध प्रेस फोटोग्राफर और लेखक गोकुल सोनी से महानदी न्यूज डॉट कॉम की लंबी बातचीत (1)
जो लोग छत्तीसगढ़ में रहते हैं और नियमित अखबार पढ़ते हैं उनके लिए गोकुल सोनी का नाम अनजाना नहीं है। करीब चार दशक तक नवभारत के पन्नों पर उनकी खींची तस्वीरें छपती रही हैं। वे न सिर्फ बहुत अच्छे फोटोग्राफर हैं बल्कि बहुत अच्छे लेखक भी हैं। छत्तीसगढ़ी संस्कृति से जुड़े विषय हों या फिर राज्य के दिग्गज नेताओं से संबंधित प्रसंग, गोकुल सोनी के पास ज्ञान और अनुभव का खजाना है। उन्हें छत्तीसगढ़ का चलता फिरता इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है। महानदी न्यूज डॉट कॉम ने उनसे उनकी इस लंबी यात्रा के अनुभव जानने के लिए बात की। प्रस्तुत है इस बातचीत की पहली किस्त।
- आप अपने बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। आपका जन्म कहां हुआ। आपका परिवार कैसा था। किस वातावरण में आप पले बढ़े।
- 12 अक्टूबर 1961 को मेरा जन्म चारामा में हुआ जिसे बस्तर का प्रवेश द्वार कहा जाता है। मेरे जन्म की भी एक कहानी है। संक्षेप में कुछ ऐसा है कि मां को प्रसव पीड़ा हुई। तकलीफ ज्यादा थी तो उसे चारपाई समेत चारामा के सरकारी अस्पताल ले जाया गया। वहां एक आपरेशन के बाद मेरा जन्म हुआ। मां बताती थीं कि उस आपरेशन के लिये धमतरी के बठेना अस्पताल से एक बड़े डॉक्टर आये थे।
मेरा परिवार गांव का साधारण परिवार था। खेती के अलावा घर में सोने-चांदी से गहने बनाने का काम भी किया जाता था। मेरे पिताजी मेरे जन्म के समय देश की सेना में अपनी सेवाएं दे रहे थे।
गंगरेल बांध की डूब में आ जाने के कारण बचपन में ही हमें गांव छोडना पड़ा। किसी गांव में स्थापित होने के लिये हम लोग खानाबदोश की तरह इस गांव से उस गांव घूमते रहे। इसीलिये छत्तीसगढ़ के कई गांवों में मेरी शिक्षा हुई। बाद में मेरे पिता का मानसिक संतुलन कुछ खराब हो गया और हमें फुटपाथ पर सायकल रिपेयरिंग की दुकान लगाकर जीवन यापन करना पड़ा। मुझे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिये अखबार बांटने वाले हॉकर का काम भी करना पड़ा। हम दो भाई और दो बहनें हैं। बहनों की शादी मेरे बड़े होने से पहले ही हो चुकी थी। मेरे बड़े भैया रायपुर के एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे। मैं गांव के जिस सरकारी स्कूल में पढ़ा वह महानदी के उस-पार था जहां बारिश के दिनों में आना जाना संभव नहीं हो पाता था। उस समय कोई भी शिक्षक वहां जाना नहीं चाहते थे। जो शिक्षक वहां थे वे बहुत अच्छे थे। नरहरपुर ब्लाक के जेपरा गांव जहां मैं प्राथमिक शाला में पढ़ा उस गांव को अधिकारी गांव के नाम से जानते हैं। वहां का हर तीसरा बच्चा सरकारी दफ्तर में बड़ा अधिकारी है। मेरे साथ पढ़ने वाले कई मेरे सहपाठी रायपुर और छत्तीसगढ़ के सरकारी दफ्तरों में बड़े अधिकारी हैं। - आप फोटोग्राफी में कैसे आ गए? और फिर प्रेस फोटोग्राफी में?
- हम लोग टिकरापारा में एक किराये के मकान में रहते थे। हमारे पड़ोसी पेशे से फोटोग्राफर थे। वे रायपुर के एक स्टूडियो में काम करते थे। अतिरिक्त आय के लिये आसपास के गांवों में जाकर लोगों की फोटो खींचा करते थे। वे एक पैर से विकलांग थे इसलिये मुझे अपने साथ गांव ले जाते थे। मैं उन्हे अपनी सायकल में बिठा कर गांव ले जाया करता था। गांव में लोग अपने पालतू पशुओं और परिजनों के साथ इनसे फोटो खिंचवाते थे। दूसरे दिन प्रिंट बनाकर गांव वालों को दे दिया करते थे। बदले में इन्हे पैसा या अनाज मिल जाता था। तब वे मुझे कैमरा छूने भी नहीं देते थे। कहते थे बहुत महंगा है, इसे छूना मत।
एक बार उन्होंने एक शादी में फोटो खींचने का आर्डर ले लिया। ठीक शादी के दिन उनकी तबीयत बिगड़ गयी। उन्होंने मजबूरी में मुझे अपना कैमरा दिया और एक निश्चित एपरचर और शटर स्पीड सेट कर दी। कैमरे में फ्लैश लगा कर मुझे दे दिया। बोले बस तुम फोकस करके फोटो खींच लेना। मैं शादी में गया और उनके निर्देशों के अनुसार फोटो खींची। कुछ अपने मन से भी खींच ली। दरअसल जब वे गांव में फोटो खींचते थे तब मेरा सारा ध्यान कैमरे और उसकी आपरेटिंग पर रहता था। मैंने उन्हे देख कर कुछ सीख भी लिया था लेकिन प्रयोग करने का अवसर नहीं मिला था। शादी के दिन मैंने सारी कसर पूरी कर ली।
फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट थी। प्रोसेस होने के बाद सारे फोटो शानदार आए। फोटोग्राफर बहुत खुश हो गये। अब मैं गांव में उनके साथ उनके ही कैमरे से फोटोग्राफी करने लग गया। - मैँ नवभारत में एक लोवर डिवीजन क्लर्क के रूप में भर्ती हुआ था और अपना काम कर रहा था। जब अमृत संदेश खुला तो नवभारत के फोटोग्राफर ने यहां काम करने से मना कर दिया। उन दिनों किसी भी प्रेस में स्थायी फोटोग्राफर नहीं होता था। स्टूडियो वालों को रिपोर्टर अपने साथ ले जाकर फोटो खिंचवाया करते थे। एक दिन रायपुर में महात्मा गांधी के पोते कनुगांधी आये। उनका यहां शौचालय सफाई सहित व्यस्त कार्यक्रम था। नवभारत में जो मुख्य नगर प्रतिनिधि थे वे अपने सहयोगियों से चर्चा कर रहे थे कि अब फोटो किससे खिंचवायी जाये क्योंकि वहां के फोटाग्राफर ने मना कर दिया था। उनकी बातों को मैं ध्यान से सुन रहा था। मैने कहा मैं फोटो खींच दूं क्या ? उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उन दिनों फोटो खींचना साधारण बात नहीं होती थी। अन्तत: मैं मजहर खान जी के साथ कनुगांधी के कार्यक्रम में गया और फोटो खींची। शाम को एक स्टूडियो से प्रिंट बनवा कर प्रेस में दे दिया। दूसरे दिन के अखबार में मेरी खींची हुई फोटो छपी। दो दिन बाद मुझे कहा गया कि गुढियारी में रामरतन बेरिया ने विशाल मैदान में गणेश की झांकी बनाई है, उसकी फोटो खींचनी है। मैं वहां गया तो देखा कि वह मेरे कैमरे की पहुंच से काफी बड़ा था। मैंने उस झांकी की टुकड़े टुकडों में फोटो खींची और प्रिंट बन जाने के बाद उसे कोलाज बना कर प्रेस में दे दिया। फोटो देखकर प्रेस में सब बहुत खुश हुए। मुझे बुला कर मेरा नाम पूछा – मैने अपना नाम गोकुल प्रसाद सोनी बताया। नाम सुनकर बोले- यह तो बहुत बड़ा हो रहा है। ऐसा करो गोकुल सोनी रखते हैं और उसमें जो प्रसाद है उसे तुम खा लो। दूसरे दिन नवभारत के प्रथम पृष्ठ पर आठ कालम में वह तस्वीर छपी और नीचे मेरा नाम छपा- नवभारत फोटो : गोकुल सोनी। मेरे रोज रोज फील्ड में जाने से व्यवस्था विभाग के सीनियर जिनके साथ मैं काम करता था, नाराज हो गये थे। उन्होने मेरी शिकायत संपादक से कर दी। संपादक जी को मैंने सारा किस्सा सुनाया तब उन्होने तय कर दिया कि मुझे अब संपादकीय विभाग में फोटाग्राफर के रूप में काम करना है। बाबू का काम अब मुझे नहीं करना है।