सुप्रसिद्ध प्रेस फोटोग्राफर और लेखक गोकुल सोनी से महानदी न्यूज डॉट कॉम की लंबी बातचीत (2)
जो लोग छत्तीसगढ़ में रहते हैं और नियमित अखबार पढ़ते हैं उनके लिए गोकुल सोनी का नाम अनजाना नहीं है। करीब चार दशक तक नवभारत के पन्नों पर उनकी खींची तस्वीरें छपती रही हैं। वे न सिर्फ बहुत अच्छे फोटोग्राफर हैं बल्कि बहुत अच्छे लेखक भी हैं। छत्तीसगढ़ी संस्कृति से जुड़े विषय हों या फिर राज्य के दिग्गज नेताओं से संबंधित प्रसंग, गोकुल सोनी के पास ज्ञान और अनुभव का खजाना है। उन्हें छत्तीसगढ़ का चलता फिरता इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है। महानदी न्यूज डॉट कॉम ने उनसे उनकी इस लंबी यात्रा के अनुभव जानने के लिए बात की। प्रस्तुत है इस बातचीत की दूसरी किस्त।
0 प्रेस फोटोग्राफी में अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताएं। क्या क्या दिक्कतें आती थीं? उन दिनों की कुछ यादें?
- प्रेस में मुझे फोटोग्राफर तो बना दिया गया लेकिन कैमरा नहीं दिया। हमारे मालिक कहते थे कि मैं जब विदेश जाउंगा तब वहां से तुम्हारे लिये कैमरा ला दूंगा। आज की तरह उन दिनों खुले बाजार में कैमरा नहीं मिलता था। सौ प्रतिशत टैक्स देना पड़ता था। यानी जितने का कैमरा उतना ही टैक्स। मालिक जब भी रायपुर आते थे तो मैं कैमरे की मांग को लेकर उनके पास पहुंच जाता। शायद परेशान होकर फिर रायपुर में ही कई वर्षों बाद एक पेंटेक्स का कैमरा तीन हजार रुपये में खरीद दिया। प्रेस में फोटो बनाने के लिये मेरे पास कोई डार्करूम नहीं था। वहां कोई अतिरिक्त जगह भी नहीं थी जिसे डार्करूम बनाया जाए। मशीन रूम के पास प्रेस में काम करने वाले कर्मचारियों के लिये एक छोटा सा शौचालय था जो काफी दिनों से बंद पड़ा था। उसे मेरे लिये डार्करूम बनाया गया। फ्लोर में कांक्रीट डालकर चूने से पोताई कर दी। वही मेरे प्रारंभिक दिनों का डार्करूम बन गया। उन दिनों मेरे पास बहुत साधारण कैमरा था। उसमें कुछ भी आटोमैटिक नहीं था सबकुछ मैनुअल करना पड़ता था। एपरचर, शटर स्पीड, आईएसओ और फोकस सब कुछ खुद ही तय करके लगाना पड़ता था। फोटो खींचने से लेकर फोटो बनाकर उसे संपादक को देने तक का समय मेरे लिये बहुत कठिन होता था। फोटो खींचने के बाद निगेटिव को अंधेरे कमरे में प्रोसेस करना होता था। थोड़ी सी असावधानी हुई कि निगेटिव खराब हो जाती थी। निगेटिव बन जाने के बाद प्रिंट बनाने में कभी कभी परेशानी होती थी। सबकुछ हो जाने के बाद जब फोटो संपादक को दिखाते थे तो कभी बहुत बढि़या की शाबासी मिलती थी तो कभी फोटो में कुछ गलती निकल आती थी। खैर वक्त गुजर गया।
उन दिनों मोबाइल या लैंडलाइन फोन तो मेरे पास था नहीं। जिन्हें कोई जानकारी देनी होती थी वे या तो मेरे घर आते थे या प्रेस में आकर बताते थे। फोटो की तलाश में दिनभर शहर में घूमना पड़ता था। रेल्वे स्टेशन, बस स्टैंड, डीके अस्पताल, कलेक्टोरेट रोज जाना ही पड़ता था। पता नहीं कब कहां क्या फोटो मिल जाए।
फोटोग्राफी एक ऐसी कला है जिसमें रोज कुछ सीखना पड़ता है। यह मिनी इंजीनियरींग है और सीखने के लिये अथाह समुद्र है। इसलिये रोज कुछ नया सीखना पड़ता है। शहर के कुछ पुराने फोटोग्राफरों जैसे पोपट भाई, बसंत दीवान जी, चन्दशेखर व्यास जी जैसे लोगों से मैं बीच बीच में जाकर मिला करता था। उनसे फोटोग्राफी की बारीकियां सीखा करता था। प्रेस के लिये कैसे एंगल की फोटो चाहिए उसके लिए एम.ए.जोसेफ जी, त्रिराज साहू जी, हमारे प्रेस के कैलाश भारद्वाज जी से काफी कुछ सीखा। उन दिनों के बड़े अच्छे फोटोग्राफर एस. अहमद जी से मैंने अगेन्स्ट लाइट में फोटो खींचना सीखा जो उन दिनों बहुत ही कठिन कार्य था।